दैनिक मनन
कुछ नया, कुछ पुराना
कुछ नया, कुछ पुराना
‘‘सो यदि कोई मसीह में है तो वह नई सृष्टि हैः पुरानी बातें बीत गई हैं; देखो, वे सब नई हो गई हैं’’। (2कुरिन्थियों 5:17)
ज़िन्दगी के कैनवास पर मनुष्य अक्सर नवीनता और परिवर्तन चाहता है। ज़रूरी नहीं कि हर परिवेश में यह अच्छा ही हो, किन्तु नये वर्ष में अक्सर इस तरह की चर्चा होती है, संदेश होते हैं। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि स्वस्थ मानसिकता एवं प्रसन्नता के लिए आम जीवन की दिनचर्या और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में कुछ न कुछ परिवर्तन होना अच्छा होता है। इसी वजह से जो व्यस्त और सम्पन्न लोग होते हैं, अक्सर गर्मी की छुट्टियों में पहाड़ों पर चले जाते हैं, पर्यटन के स्थानों में जाकर एक भिन्न और तनावरहित वातावरण में अपना समय गुज़ारते हैं।
प्रभु यीशु मसीह ने सदैव आंतरिक परिवर्तन और आत्मिक नवीनता की बात कही है। संसार बाह्य अस्तित्व को देखता है किन्तु परमेश्वर हृदय को जांचता है। संसार की नज़र भौतिक वस्तुओं पर जाती है कि फलां व्यक्ति कैसे दिखता है, कैसे कपड़े पहनता है, किस तरह के घर में रहता है, कौन-कौन सी उपलब्धियां प्राप्त हैं इत्यादि-इत्यादि। ये बातें प्रमुख हो सकती हैं किन्तु प्राथमिक नहीं। प्राथमिक तो वही है, जो ईश्वर की दृष्टि में महत्वपूर्ण है।
जीवन के प्रमुखतम- आधारभूत-ईश्वर प्रदत्त नियमों में से एक बात जो हमें सीखना है कि हमारी उपलब्धियों, पदों और सोशल स्टेटस से बढ़कर प्रमुख बात यह है कि हम क्या हैं।
हमें भी अपने जीवनों में नवीनता लाना है और परिवर्तन करना है, किंतु यह किसी भौतिक उपलब्धि से नहीं होगा वरन् जीवन में नवीनता और परिवर्तन आएगा, प्रभु यीशु मसीह की शिक्षाओं को जीवन में समाहित करने से, आत्मा के फल को अपने व्यवहार में उतारने से और अपने जीवन की बुराइयों को स्वीकार कर परमेश्वर के वचन से; उनकी प्रतिस्थापना करने से। इस आने वाले बर्ष में हमारे जीवन में भी ऐसी मसीही साक्षी हो कि लोग हमारे जीवन से प्रभु को देख सकें।
प्रार्थना :- पिता परमेश्वर, हमें ऐसी समझ दे कि इस आने वाले वर्ष में अपने जीवन की प्राथमिकताओं को समझने वाले हों और तेरे वचन के अनुसार जीवन जीने वाले हों। आमीन।
LAST_UPDATED2 द्वारा लिखित डॉ. श्रीमती इन्दु लाल मंगलवार, 21 नवम्बर 2006 17:41
किसी भी चीज़ का नशा या मतवालापन घातक होता है। चाहे यह नशा शराब या नशीली दवाइयों का हो और चाहे यह नशा पैसों का हो प्रतिष्ठा या पद का हो। जब कोई भी लक्ष्य हमारे जीवन में इतना अहम् हो जाए कि हमारा सम्पूर्ण ध्यान, पूरा समय, सभी योग्यताएं, सभी प्रयास उस लक्ष्य को पाने के लिए केन्द्रित हो जाएं और हम सम्पूर्णता से स्वयं को उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए झोंक दें तो यह भी मतवालापन है। कोई भी व्यक्ति या वस्तु जब हमें परमेश्वर से अधिक प्रिय हो जाती है, हमारे जीवनों में परमेश्वर का स्थान अन्य चीज़ें ले लेती हैं तभी त्रासदियों का सिलसिला हमारे जीवन में प्रारम्भ होता है।
परमेश्वर ने सम्पूर्ण सृष्टि की सृजना इस प्रकार की है कि मनुष्य सृष्टि से भरपूर आनन्द प्राप्त कर सकें। परमेश्वर ने ही मनुष्य को शारीरिक भूख और प्यास भी दी है किन्तु साथ ही इनके आनन्द उठाने का निर्धारित समय है साथ ही निर्धारित सीमाएं हैं। नियत समय एवं सीमा का निर्धारण मनुष्य के ही लाभ के लिए किया गया है। इस निर्धारित परिधि के तहत ही मनुष्य सच्चा आनन्द और सच्ची शांति प्राप्त कर सकता है। यदि मनुष्य परमेश्वर के अधिकार को चुनौती देता है और परमेश्वर द्वारा निर्धारित सीमाओं को लांघकर असमय, ग़लत तरीके अपनाकर जीवन में सुख और शांति प्राप्त करना चाहता है तो यह बात हानिकारक होती है। ऐसे मनुष्य चाहे ऊपर से कितने ही सुखी और सम्पन्न क्यों न दिखें वास्तव में उनका अन्तःकरण असंतोष, अशांति, असुरक्षा एवं भय से मुक्त हो नहीं सकता क्योंकि सच्ची शांति का स्रोत केवल प्रभु यीशु मसीह है।
यदि हम बाइबिल में देखें तो वहां लिखा है ‘‘क्या तुम नहीं जानते कि तुम परमेश्वर का मन्दिर हो और परमेश्वर का आत्मा तुम में वास करता है? यदि कोई परमेश्वर के मन्दिर को नष्ट करे तो परमेश्वर उसे नष्ट करेगा क्योंकि परमेश्वर का मन्दिर पवित्र है और वह तुम हो’’ (1कुरिन्थियों 3:16-17)
देह को केवल नाशवान समझकर नहीं चलना है। देह परमेश्वर का मन्दिर है। परमेश्वर का आत्मा इसमें वास करता है। प्रेरितों के काम 17:25 में भी यही बात लिखी है कि परमेश्वर हाथ के बनाए हुए मन्दिरों में निवास नहीं करता। उसने अपना निवास स्थान मनुष्य के शरीरों को ठहराया है। ईंट और पत्थर के बनाये हुए मन्दिरों की पवित्रता के लिए तो बेखटके कुर्बान होते दिखाई देते हैं किन्तु अपने शरीर के प्रति सतर्क नहीं रह पाते जिसे वास्तव में शुद्ध और पवित्र रखना है।
परमेश्वर का यही आव्हान भी है कि ‘‘अपने-अपने शरीरों को जीवित और पवित्र और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान करके चढ़ाओ।’’ (रोमियों 12:1)
बाइबिल में यीशु मसीह के एक सन्दर्भ में अत्याधिक क्रोधित होने का वर्णन है। जब मन्दिर की पवित्रता पर आंच आई और उसकी गरिमा भंग हुई तब प्रभु यीशु मसीह ने कोड़ा हाथ में उठा लिया और सब कुछ उलट-पुलट कर दिया। (यूहन्ना 2:13-16) परमेश्वर ने हमारे सामने लक्ष्य रखा है कि, ‘‘जैसा मैं पवित्र हूं वैसे ही तुम भी पवित्र बनो।’’ (1 पतरस 1:6) उसी के समान यह दूसरा भी कि, ‘‘सिद्ध बनो जैसा स्वर्गीय पिता सिद्ध है।’’ (मत्ती 5:48) मनुष्यों से स्वयं की तुलना कर सन्तुष्ट नहीं होना है क्योंकि लक्ष्य बहुत उत्कृष्ट है मंजिल बहुत दूर है कदम-कदम कर आगे बढ़ना है – सिद्धता की पवित्रता की ओर। हम किस प्रकार से अपने शरीरों को पवित्र बना सकते हैं? किस प्रकार हम अपने शरीरों को एक गरिमायुक्त ‘‘मन्दिर’’ बना सकते हैं जिसमें परमेश्वर का वास हो? इस संबंध में प्रमुख 4 बातों का उल्लेख यहां किया जा रहा हैः-
1. विचारों की पवित्रताः- विचार बहुत प्रमुख होते हैं। ये विचार बीज के समान होते हैं जो आगे चलकर वट वृक्ष का रूप धारण करते हैं। बाइबिल के पुराने नियम में दुष्कर्मों को पाप ठहराया गया था किन्तु नये नियम में प्रभु यीशु मसीह ने ऐसे ‘‘विचारों’’ के प्रति सावधान किया जिनको पनपने देने की प्रवृत्ति पाप को जन्म देती है। उन्होंने कहा ऐसी कुदृष्टि से बचें जो व्यभिचार के लिए प्रेरित करे। ऐसे क्रोध से बचो जो हत्या के लिए प्रेरित करे और ऐसे लालच से बचो जो चोरी और विभिन्न ग़लत हथकंडों के लिए प्रेरित करे।
इसी कारण पौलुस ने भी लिखा है कि, ‘‘जो जो बातें न्याय संगत है, जो जो बातें मनभावनी हैं अर्थात् जो जो उत्तम तथा प्रशंसनीय गुण हैं उन्हीं का ध्यान किया करो।’’ (फिलिप्पियों 4:8) रचनात्मक बातों की ओर ध्यान लगायेंगे जीवन रचनात्मक कार्यों की ओर आगे बढ़ेगा। यदि नकारात्मक बातों की ओर ध्यान लगाएंगे तो जीवन या तो विध्वंसात्मक कार्यों की ओर प्रेरित होगा या फिर कुछ ठोस जीवन में कभी कर नहीं पाएंगे। यिर्मयाह 4:14 में यह निर्देश है कि ‘‘हे यरूशलेम अपने हृदय को बुराई से धो डाल।’’
यदि नये नियम में यरूशलेम शब्द का अर्थ देखें तो यह कलीसिया के लिए उपयोग हुआ है अतः कलीसिया के प्रत्येक सदस्य के लिए विशेष है कि हमें अपने हृदय को हर प्रकार की मलिनता, बुराई, छल, कपट, द्वेष और जलन आदि से धोकर शुद्ध और पवित्र बनाना है। (कुलुस्सियों 3:5-8) मसीह के वचन को अपने हृदयों में बहुतायत से बसने देने के द्वारा ही (कुलुस्सियों 3:16) हम न केवल नकारात्मक चिन्ता से बच सकते हैं किन्तु अपने चिन्तन को धनात्मक बातों की दिशा में मोड़ सकते हैं। बुरा न सोचना ही पर्याप्त नहीं। अच्छी बातों पर मन लगाना भी अनिवार्य है। इस दुनिया में अच्छा और भला क्या है? सिर्फ मसीह और उसकी शिक्षाएं। वही अच्छाई की जड़ और बुनियाद हैं।
2. वचन की पवित्रताः- कुछ लोग गोलियां नहीं दागते, हाथ नहीं उठाते, तलवार नहीं चलाते किन्तु उनके तीखे कटाक्ष, कटु वचन और झूठ ऐसे ज़हर बुझे हुए तीरों के समान होते हैं जिससे मनुष्य का उत्साह समाप्त हो जाए। वह शीशे के समान टूटकर चकनाचूर हो जाए। बसे, बसाए परिवार बर्बादी की कगार पर पहुंच जाएं। बनते हुए संबंधों में दरार आ जाए। ऐसे मनुष्य अपने इस दुर्गुण की यह कहकर सराहना करते हैं कि ‘‘हम तो जैसा जी में आता है कहते हैं, अपने दिल में कोई मैल नहीं रखते, हम अपना दिल साफ रखते हैं।’’
प्रभु यीशु मसीह ने इस संबंध में भी हमें सतर्कता बरतने के कड़े निर्देश दिये हैं। उसने कहा, ‘‘मैं तुमसे कहता हूं जो भी निकम्मी बात मनुष्य बोलेंगे, न्याय के दिन वे उसका लेखा देंगे। क्योंकि अपने शब्दों के द्वारा तू निर्दोष और अपने शब्दों ही के द्वारा तू दोषी ठहराया जाएगा।’’ (मत्ती 12:36-37) हम बिना सोचे विचारे कुछ भी मनमाने ढंग से नहीं बोल सकते। न्याय के दिन हमको अपने मुख से निकले हुए हर वचन का लेखा परमेश्वर को देना पड़ेगा।
याकूब 1:26 में भी यही बात है कि ‘‘यदि कोई अपने आपको भक्त समझे और अपनी जीभ पर लगाम न लगाए पर अपने हृदय को धोखा दे तो उसकी भक्ति व्यर्थ है।’’ प्रभु यीशु मसीह ने कहा कि भोजन वस्तु मनुष्य को अपवित्र नहीं करती परन्तु जो वचन मनुष्य के मुख से निकलते हैं वे मनुष्य को अपवित्र करते हैं। (मत्ती 15:17-20)
3. कार्यों में पवित्रताः- कार्य विश्वास की गवाही होते हैं। जो बातें हमारे लिए प्रमुख हैं वैसे ही कार्य हम करते हैं। कुछ लोग कार्य मन लगाकर करते हैं और कुछ हर कार्य बेमन से बेगारी टालकर करते हैं। कुछ लोगों के सभी कार्य आत्मकेन्द्रित होते हैं जिससे केवल उनका लाभ हो। ऐसे लोग समय के साथ समाप्त हो जाते हैं किन्तु कुछ लोग ऐसे कार्य करते हैं जिससे न सिर्फ उनका भला हो परन्तु दूसरे भी ऊंचे उठ सकें। ऐसे लोग इतिहास बन जाते हैं। इनके नाम कई पीढ़ियों तक आदर के साथ याद किये जाते हैं।
हम जो जी में आए न ही उसे कहने के लिए स्वतंत्र हैं और न ही करने ही के लिए स्वतंत्र हैं। इफिसियों 2:10 पौलुस ने इस संबंध में स्पष्ट लिखा है कि ‘‘हम परमेश्वर के हाथ की कारीगरी हैं जो मसीह यीशु में उन भले कार्यों के लिए सृजे गये हैं जिन्हें परमेश्वर ने प्रारम्भ ही से तैयार किया कि हम उन्हें करें।’’ कुलुस्सियों 1:10 में भी यही बात है कि, ‘‘जिससे तुम्हारा चालचलन प्रभु के योग्य हो जाए और तुम सब प्रकार से उसे प्रसन्न कर सको तथा सब भले कामों से फलवन्त होकर परमेश्वर के ज्ञान में बढ़ते जाओ।’’
नये नियम में कार्य के संबंध में ‘‘फल’’ शब्द का प्रयोग भी बहुत बार हुआ है। झूठे शिक्षकों के लिए कहा गया है कि तुम उनके फलों से उन्हें पहचान लोगे (मत्ती 7:16) अर्थात् कार्य मनुष्य की पहचान बन जाते हैं। परमेश्वर के राज्य में निष्क्रियता का कोई स्थान नहीं है। इसके संबंध में प्रभु यीशु मसीह ने स्पष्ट कहा है कि जो डाली नहीं फलेगी वह काटी जायेगी और आग में झोंक दी जाएगी। (यूहन्ना 15:2-6) तोड़ों के दृष्टान्त में भी यही बात है। आलस छोड़ो, बहाने बनाना छोड़ो परिश्रम और लगन से कार्य करो तभी धन्य और विश्वासयोग्य दास ठहरोगे। (मत्ती 25:14-30) याकूब ने भी अपनी पत्री में लिखा है कि परमेश्वर पर मात्र विश्वास करना पर्याप्त नहीं है बल्कि ऐसा विश्वास मृतप्रायः है क्योंकि दुष्टात्माएं भी विश्वास करती हैं किन्तु विश्वास के साथ उसके अनुरूप कार्य आवश्यक है। (याकूब 2:14-26)
4. सम्पूर्ण शरीर की पवित्रताः- परिस्थितियां तो आदम और हव्वा के पाप के परिणामस्वरूप विषम हो गई थीं। आज भी हैं और हमेशा रहेंगी। कभी भी और कहीं भी पूर्ण रूप से अनुकूल परिस्थितियों की चाहत करना व्यर्थ है। बात प्रमुख आत्मसंयम की है। जिससे सम्पूर्ण शरीर को पवित्र और सुरक्षित रखा जा सकता है। जब सम्पूर्ण दुनिया में चारों ओर पाप का साम्राज्य था तब भी नूह ने स्वयं को पाप करने से बचाकर रखा। दानिय्येल गुलाम बनाकर नबूकदनेस्सर राजा के द्वारा यरूशलेम से बेबीलोन ले जाया गया था। एक परदेशी और वह भी गुलाम के रूप में किन्तु आत्मसंयम से भरपूर। उसने दृढ़ निश्चय कर लिया कि वह राजा के उत्तम भोजन और दाखमधु से स्वयं को अपवित्र नहीं करेगा। (दानिय्येल 1:8) उसे तो सुनहरा अवसर था कि राजकीय भोजन का मज़ा ले किन्तु उसने परमेश्वर यहोवा को हमेशा सबसे प्रिय जाना और उसकी गवाही अपने जीवन से उसने हर हाल और हर समय में दी।
यूसुफ एक आकर्षक जवान था। परदेश में अकेला इस्राएली था। वहां पोतीफर की बदचलन पत्नी ने बार-बार उसे व्यभिचार के लिए उकसाया। हो सकता है वह उसे पदोन्नति और धन दौलत का भी प्रलोभन देती हो किन्तु उसकी ज़ोर ज़बरदस्ती करने पर भी युसुफ ने आत्मनियंत्रण नहीं खोया। वह व्यभिचार के पाप में नही पड़ा। न तो उसने अपने स्वामी के साथ विश्वासघात किया और न ही उसने परमेश्वर की दृष्टि में कोई पाप किया। (उत्पत्ति 39:7-18)
इन तीनों उदाहरण में आत्मनियंत्रण की बात प्रमुख है। नूह के समय में चारों ओर दूषित वातावरण था परन्तु नूह आत्मनियंत्रण होकर परमेश्वर के भय में चलता रहा। दानिय्येल के समय में ‘‘पेट का सवाल’’ था किन्तु उसने स्वयं की भूख की संतुष्टि से बढ़कर परमेश्वर को प्रसन्न रखना उचित समझा। यदि ‘‘स्त्री ही पहल करे तो पुरूष क्या कर सकता है?’’ इस कहावत को भी यूसुफ ने अपने आत्मनियंत्रण के द्वारा ग़लत साबित कर दिया।
पौलुस इफिसियों 6:10-18 में सभी विश्वासियों को इस संबंध में आगाह करता है कि शैतान की सभी युक्तियों का, अन्धकार की सभी सांसारिक शक्तियों का तथा दुष्टता की सेनाओं से मल्लयुद्ध करने के लिए हमें हर परिस्थिति में और हर पल तैयार रहना है। तीतुस 2:1-8 में भी संयम के द्वारा आचरण खरा करने की बात है। तीमुथियुस की पत्री में योद्धा और धावक के समान आत्मनियंत्रित जीवन जीने की शिक्षा है। हमें परमेश्वर को हां कहना और संसार को न कहना सीखना होगा। जीवन के हर निर्णय परमेश्वर के भय में लेने से बहुत सी बुराईयों से बचा जा सकता है।
5. परीक्षाओं से दूर भागकर शरीर को पवित्र रखना हैः- भजन संहिता में यह बात स्पष्ट है कि न तो हमें दुष्टों की संगति करना है न पापियों के मार्ग में खड़ा ही होना है और न ही ठट्ठा करने वालों की मण्डली में बैठना है। इनसे दूर रहना है और परमेश्वर के वचन के प्रकाश में आगे बढ़ना है। स्वयं पर ज़रूरत से ज्यादा विश्वास करने और शैतान की शक्तियों का अवमूल्यन करने में कोई भी समझदारी नहीं। ऐसी परिस्थितियों से दूर रहने में ही भलाई है।
‘‘बुरी संगति अच्छे चरित्र को बिगाड़ देती है।’’ (1 कुरिन्थियों 15:33) यह तो एक अटल सत्य है अतः बुरी संगति से बचना है उससे दूर भागना है। 2 तीमुथियुस 2:22 में भी यही बात है कि ‘‘जवानी की अभिलाषाओं से भाग।’’ यूसुफ भी परीक्षा से बचने के लिए भागा। (उत्पत्ति 39:12) इस प्रकार हमें इस बात को गम्भीरतापूर्वक लेना है कि हमारा शरीर परमेश्वर का मन्दिर है और जो अपने शरीर को नाश करेगा उसे परमेश्वर भी नाश करेगा।
हम अपने शरीरों को विचारों की पवित्रता, बातों की पवित्रता, कार्यों की पवित्रता, आत्मानुशासन एवं हर बुराई से दूर रहने के द्वारा पवित्र करें और उस महापवित्र परमेश्वर को इसे जीवित, पवित्र और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान करके चड़ाएं।
डॉ. श्रीमती इन्दु लाल
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